Tuesday, June 15, 2010

आदाब दोस्तों

एक ग़ज़ल समात करें जो मेरे पसंदीदा शायरों में से एक बशीर बद्र साहब की ज़मीन पर है ..........

मैं
ज़हन में उसके सदा रहा कुछ कहा नहीं कुछ सुना नहीं
बस ख़ाक बन के उड़ा रहा कोई हवा नहीं कोई धुवां नहीं

यहाँ शख्स शख्स नज़र में है , वहां लफ्ज़ लफ्ज़ खबर में है
ये ज़िन्दगी किस सफ़र में है कोई लुटा नहीं कोई बचा नहीं


ये अजीब हिज्रो विसाल है , की उरूज़ ही जवाल है
यहाँ हर किसी को ख़याल है , कोई उठा नहीं कोई गिरा नहीं


ये चराग है वो मकान है ,के दोनों का इम्तेहान है
मगर हर किसी को गुमान है , कोई जला नहीं कोई बुझा नहीं


ये अजियतें ये इनायतें , ये शिकायतें ये हिदायतें
हैं सब उसी की रहमतें , कोई ज़मी नहीं कोई खला नहीं

रंजीत

Tuesday, June 1, 2010

आदाब दोस्तों

मुआजरत कि कई दिनों से आपसे रूबरू नहीं हो सका कुछ मशरूफियत थी तो वक़्त ने इज़ाजत नहीं दी ......

ले चलता हूँ आपको दीवानगी की इन्तेहा पर .......


आग हवा मिटटी और पानी हम जैसे दीवानों से
रस्मे पुरानी कसमे कहानी हम जैसे दीवानों से

या तो ख्यालों में आना , आना तो फिर जाना
छोड़ भी दो करना मनमानी हम जैसे दीवानों से

जितनी भी रस्मे थी वफा की हमने सबको निभाया है
ज़फ़ा की रस्मे तुमको निभानी हम जैसे दीवानों से

कितनी शिद्दत से की महब्बत फिर भी तुझपे दाग नहीं
चाँद हो गया पानी पानी, हम जैसे दीवानों से

हमने हवाओं को उकसाकर जुल्फों से रुखसार छुआ
अक्सर होती है नादानी, हम जैसे दीवानों से.....

रंजीत......

Saturday, May 8, 2010

आदाब दोस्तों

एक ग़ज़ल जो कभी कही गयी थी नज्र है आपकी समातों को .............

जब मेरी तबाहियों पर, मुंसिफी की जाएगी
खुदा जाने किस तरह से, शायरी की जाएगी

तू तस्सव्वुर तो ज़रा कर, इश्क की बरबादियाँ
तुझसे जीते जी कहाँ, ये खुदकुशी की जाएगी

जब समन्दर सूख जायेगा, किसी की याद में
तब किसी के आसुओं से, दिल्लगी की जाएगी

चाँद के आगोश में ,सूरज भी जब ढल जायेगा
फिर जला के दिल हमारा, रौशनी की जाएगी

दोस्तों से दोस्ती , छोडो मियां रहने भी दो
अब तो बस दुश्मनों से दुश्मनी की जाएगी

रंजीत........

कुछ शेर आपके हवाले बाद में भी करूंगा इस ग़ज़ल के ......................तैयार रहिये

Monday, May 3, 2010

आदाब दोस्तों

एक नज़्म जिसका उन्वान है ........क्या यही कहानी है लोगों की ..........आप सभी को नज्र

क्या है आज ज़िन्दगी हमारी
दो राहों पर खड़ी बेचारी
दर्द झेलती बारी बारी
फिर भी कहती अभी हारी

जीवन का बस नाम है लड़ना
यही ज़ुबानी है लोगों की
क्या यही कहानी है लोगों की


अमीरी का कहीं बजा बिगुल है
गरीबी की तो बत्ती गुल है
सड़क पे गर्मी सड़क पे सर्दी
बारिश में फुटपाथ का पुल है

जिसके नीचे सोती दुनिया
छत ये सुहानी है लोगों की
क्या यही कहानी है लोगों की


पैसे कि है ऊंची छोटी
निर्धनता की बेटी छोटी
भूख पर बिकती रहती इज्ज़त
कोठे पर नाचती रोटी

उस रोटी के लिए मिट गयी
आज जवानी है लोगों की
क्या यही कहानी है लोगों की


पैरों में पड़ते है छाले
दीवार गिरी घर में हैं जाले
हुई है लाजो अब सोलह की
चिंताएं हैं जीभ निकाले

कब होगी बिटिया कि शादी
ये हैरानी हैं लोगों की
क्या यही कहानी लोगों की

चलने का है नाम ज़माना
मेहमानों का आना जाना
चिड़िया चहकी लोग खड़े हैं
आया कोई जाना पहचाना

अंतिम सत्य यही है बंधू
कब्र निशानी है लोगों की
क्या यही कहानी है लोगों की

रंजीत
इस नज़्म के कुछ और बंद बाद में अर्ज़ करूंगा..............



Thursday, April 29, 2010

आदाब दोस्तों
क्या मजबूरी है आपकी इस ग़ज़ल को पढने की ........

इतने गिले शिकवे रखते हो ऐसी क्या मजबूरी है
इतनी महब्बत क्यों करते हो ऐसी क्या मजबूरी है

रोज़ हवाएं बहकाकर इल्जाम हमी पर रखते हो
जुल्फें खोल के क्यों चलते हो ऐसी क्या मजबूरी है

चाँद तुम्हारे हुश्न के चलते खुद पर दाग लगा बैठा
रात में तारे क्यों गिनते हो ऐसी क्या मजबूरी है

रश्क तुम्हारी नज़र से करके मैखाने सब बंद हुए
तुम हो कि मस्जिद में मिलते हो ऐसी क्या मजबूरी है

दीदार तुम्हारा करके पैहम ग़ज़लें कहता रहता हूँ
इतनी ग़ज़लें क्यों सुनते हो ऐसी क्या मजबूरी है

( पैहम = लगातार ) ( रश्क =इर्ष्या )
रंजीत
कुछ शेर और हैं इस ग़ज़ल के जो बाद में आपके हवाले करूंगा


Wednesday, April 28, 2010

दोस्तों आदाब

एक ग़ज़ल के तीन शेर आपकी समातों कि नज्र

अगर रात कि तुम मजबूरी होती
चाँद से उसकी इतनी दूरी होती

आँखों से जब बात हुई तो बात बनी
अल्फाजों से बात ही पूरी होती

एक कहानी कैसे पूरी होती,अगर
एक कहानी ख़त्म अधूरी होती

रंजीत


दोस्तों ये दो मुताफर्रिक अशआर हैं जो ग़ज़ल से निकाले हुए नहीं हैं लिहाज़ा जैसे कहा था वैसे ही पेश करता हूँ


पैमाना वक़्त का लबरेज़ है मगर
ज़रा सा छलक जाये तो नाम- -जाम दूं
रंजीत

जब चल रहे थे, ज़माने के खंज़र मुझ पर
तब मैंने भी हंस के, एक बार उसे देखा था ...

रंजीत


Tuesday, April 27, 2010

दोस्तों

ये ग़ज़ल भी समात कर लें .........

सच है ख्याल उनका तो आता है रात दिन

उस पर ये चाँद भी तो चिढाता है रात दिन

गिरता हूँ जाके रोज़ ही दैरो हरम में मैं
अल्लाह नहीं साकी उठाता है रात दिन

नज़रों से वो नज़र तो मिलाता नहीं मगर
नज़रें झुका के पर वो सताता है रात दिन

इक दिन दिले जाना से जो कुछ बात हो गयी
हर बात में वह बात बताता है रात दिन

इक दिन मैं रूठ के जो मैकदे से आ गया
वो प्यास बढ़ा कर के मनाता है रात दिन.........

( दैरो हरम = मंदिर मस्जिद )

रंजीत