Wednesday, April 28, 2010

दोस्तों आदाब

एक ग़ज़ल के तीन शेर आपकी समातों कि नज्र

अगर रात कि तुम मजबूरी होती
चाँद से उसकी इतनी दूरी होती

आँखों से जब बात हुई तो बात बनी
अल्फाजों से बात ही पूरी होती

एक कहानी कैसे पूरी होती,अगर
एक कहानी ख़त्म अधूरी होती

रंजीत


दोस्तों ये दो मुताफर्रिक अशआर हैं जो ग़ज़ल से निकाले हुए नहीं हैं लिहाज़ा जैसे कहा था वैसे ही पेश करता हूँ


पैमाना वक़्त का लबरेज़ है मगर
ज़रा सा छलक जाये तो नाम- -जाम दूं
रंजीत

जब चल रहे थे, ज़माने के खंज़र मुझ पर
तब मैंने भी हंस के, एक बार उसे देखा था ...

रंजीत


3 comments:

  1. पैमाना वक़्त का लबरेज़ है मगर
    ज़रा सा छलक जाये तो मैं नाम-ऐ -जाम दूं

    -वाह, बहुत खूब..क्या बात है!!

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  2. चौहान साहब, आपका क़लाम देखा, पसन्द आया। आप की सोच, आपकी कहन, आपका अंदाज़ और आपका शौक़ - सभी बेहतरीन हैं। आपकी पकड़ भी अच्छी है उर्दू ज़ुबान पर मगर कुछ है जो अभी और चाहिए।
    ग़ज़ल के अपने आईन होते हैं, शे'र कहने के भी अपने क़ायदे। आप अभी कहीं शे'र के छ्न्द की पकड़ में, यानि बह्र-ओ-वज़्न में ज़रा सा मात खा रहे हैं। ये कोई बड़ी बात नहीं है आपके लिए कि आप ज़रा सी कोशिश से इसपे क़ाबू न पा लें। इस तक़्लीफ़ से सब दो चार होते हैं इब्तिदाई दौर में।
    आप थोड़ा सा कोशिश करें, दो दीवान जो राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किए हैं, दीवान-ए-मीर और दीवान-ए-ग़ालिब, ये पढ़ें और ख़ासकर इनकी भूमिकाएँ। ये तो हुए सफ़र के साथी, और नेट पर मैंने देखा है कि पंकज 'सुबीर' ने बड़ा अच्छा काम किया है लोगों को ग़ज़ल पर एजूकेट करने का, वहाँ से भी मदद मिल सकती है आपको मुकम्मिल और मँजा हुआ शायर बनाने में।
    आप ये ज़रूर ख़्याल रखिएगा कि ये मैं कमियाँ नहीं निकाल रहा, मैं ये सब इसलिए कह रहा हूँ कि आप की शायरी में एक बात है - जो मुझे मजबूर कर रही है कि और आगे जाने का रास्ता दिखा के भटकन से बचने की इस्लाह करूँ।
    रस्म-अदायगी के तौर पर वाहवाही तो बहुत लोग कर जाएँगे, मगर कमी वही दिखाएगा जो बेहद ख़ुलूस के साथ, मुहब्बत के साथ ये चाहेगा कि आपकी शायरी अपने मकाम तक पहुँचे।
    अगर आप को किसी भी तरह की कोई इस्लाह आगे चाहिए हो, तो बन्दा ख़ुशी से हाज़िर है, और अगर मेरी बात नागवार गुज़री हो तो अपना गुनाह क़बूल करते हुए गुस्ताख़ी मुआफ़ करने की इल्तिजा के साथ, आपका शुभेच्छु,
    हिमान्शु मोहन

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  3. हिमांशु जी
    बहुत शुक्रिया आपका आपकी नेक दिल सलाह के लिए ......
    इंशाल्लाह ऐसे ही मेरी रहनुमाई करते रहें ......
    जहाँ तक बहर कि बात है तो मुझे इल्म है इस बात का कि मुझसे गलती किन किन शेर में हुई है
    मसलन आपने जो मेरी आखिरी पोस्ट के कुच्छ शेर पढ़े उसमे उसमे तीसरा शेर जहाँ मैंने " मुकम्मल " कहा और सानी में गर.....तो वहां मैं वज़न से बाहर हुआ
    उसके नीचे वाले शेर में सानी में मैंने मैं कहा है जो हर्फे इल्लत है ...... तो ऐसी गलतियाँ कि हैं मैंने और इन ऐब को सुधरने के लिए ही मैंने वैसे का वैसा ही पोस्ट कर दिया ..........तो आपकी सलाह मुझे ज़रूर कुछ रहत दिला सकती है
    और अगर वाकई में लगता है कि गुजन्जैश है वही अल्फाज़ होना चाहियेया जो कहा जा रहा है तो मैं करूंगा भी , पर मुआफ करें पूरी तरह से मुत्माइन होने के बाद वज़ह भी होनी चाहियेया ................................

    फिर भी मैंने उन शेरों को वैसा ही रखा है और मैं मश्क भी कर रहा उन पर जैसे ही होंगे मैं एडिट करूंगा
    मुझे मालूम है कि कहाँ हर्फे इल्लत, साकिन, तनाफुर, भी गया है,

    और हाँ मैं सिर्फ शायरी करने के लिए शेर नहीं कहता उन्हें जीता हूँ
    मैं पहले हर शायर जिसे मैं शायर मानता हूँ ,मैं गलत भी हो सकता हूँ ,उन्हें फोल्लो करता हूँ तब कोशिश करता हूँ कि कहा जाये और मेरे शायर अहमद फ़राज़ ,जों अलिया , खुमार बाराबंकवी , बशीर बद्र , पीरजादा कासिम, साकी अमरोही, शहरयार
    साहब , अली सरदार जाफरी, और कुछ हद तक वसीम बरेलवी । कुछ एक नाम छूट भी रहे हैं...........

    मैं १९वि सदी कि बात कर रहा हूँ ....१८वि में तो सभी सभी शायर थे ..........


    पहले मैं इनको पढता हूँ औरकोशिश करता हूँ कि इनकी ज़मीन पर कुछ कहा जाये....\
    मेरा कोई उस्ताद नहीं है शायरी में जिससे मैं अभी इस्लाह कर सकूं .हाँ अशोक जी मेरे गुरू ज़रूर हैं........

    तो मेरी गुज़ारिश है कि मेरा पूरा कलाम पढ़े और जिन शेर में आपको गुंजाईश लगे मुझे ज़रूर इक्तला करें मैं एहसानमंद रहूँगा आपका ........

    और जिन महोदय कि आप बात कर रहे हैं नेट पर मैं देखूँगा ज़रूर देखता हूँ कहाँ तक हम मुतमईन होते हैं .....मुझे अगर आप कुछ सुझाव दे सकें मेरे शेरों पर तो ज़रूर मैं उन्हें अमल में लूंगा

    ऐसे ही मुझे रास्ता दिखाते रहें.................

    बहुत शुक्रिया आपका
    आते रहिएअग मुझे आपकी ज़रुरत है

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