Thursday, April 29, 2010

आदाब दोस्तों
क्या मजबूरी है आपकी इस ग़ज़ल को पढने की ........

इतने गिले शिकवे रखते हो ऐसी क्या मजबूरी है
इतनी महब्बत क्यों करते हो ऐसी क्या मजबूरी है

रोज़ हवाएं बहकाकर इल्जाम हमी पर रखते हो
जुल्फें खोल के क्यों चलते हो ऐसी क्या मजबूरी है

चाँद तुम्हारे हुश्न के चलते खुद पर दाग लगा बैठा
रात में तारे क्यों गिनते हो ऐसी क्या मजबूरी है

रश्क तुम्हारी नज़र से करके मैखाने सब बंद हुए
तुम हो कि मस्जिद में मिलते हो ऐसी क्या मजबूरी है

दीदार तुम्हारा करके पैहम ग़ज़लें कहता रहता हूँ
इतनी ग़ज़लें क्यों सुनते हो ऐसी क्या मजबूरी है

( पैहम = लगातार ) ( रश्क =इर्ष्या )
रंजीत
कुछ शेर और हैं इस ग़ज़ल के जो बाद में आपके हवाले करूंगा


Wednesday, April 28, 2010

दोस्तों आदाब

एक ग़ज़ल के तीन शेर आपकी समातों कि नज्र

अगर रात कि तुम मजबूरी होती
चाँद से उसकी इतनी दूरी होती

आँखों से जब बात हुई तो बात बनी
अल्फाजों से बात ही पूरी होती

एक कहानी कैसे पूरी होती,अगर
एक कहानी ख़त्म अधूरी होती

रंजीत


दोस्तों ये दो मुताफर्रिक अशआर हैं जो ग़ज़ल से निकाले हुए नहीं हैं लिहाज़ा जैसे कहा था वैसे ही पेश करता हूँ


पैमाना वक़्त का लबरेज़ है मगर
ज़रा सा छलक जाये तो नाम- -जाम दूं
रंजीत

जब चल रहे थे, ज़माने के खंज़र मुझ पर
तब मैंने भी हंस के, एक बार उसे देखा था ...

रंजीत


Tuesday, April 27, 2010

दोस्तों

ये ग़ज़ल भी समात कर लें .........

सच है ख्याल उनका तो आता है रात दिन

उस पर ये चाँद भी तो चिढाता है रात दिन

गिरता हूँ जाके रोज़ ही दैरो हरम में मैं
अल्लाह नहीं साकी उठाता है रात दिन

नज़रों से वो नज़र तो मिलाता नहीं मगर
नज़रें झुका के पर वो सताता है रात दिन

इक दिन दिले जाना से जो कुछ बात हो गयी
हर बात में वह बात बताता है रात दिन

इक दिन मैं रूठ के जो मैकदे से आ गया
वो प्यास बढ़ा कर के मनाता है रात दिन.........

( दैरो हरम = मंदिर मस्जिद )

रंजीत


आदाब दोस्तों

मुआजरत की बहुत दिनों से आप से रूबरू नहीं हुआ .....दरसल एक हसीं गुनाह हो गया
और वो गुनाह जब कर चुके तो क्या तजुर्बात हासिल हुए ये आपके दरम्यान अर्ज़ करता हूँ इजाजत दें


दिल किसी का जल गया के जब गुनाह कर चुके

कोई मुस्कुरा पड़ा के जब गुनाह कर चुके

गुनाह-ऐ इश्क बेसबब शराब में मढ़ा गया
गुनाह ने बचा लिया के जब गुनाह कर चुके

गुनाह कर के हम फ़क़त यही तो सोचते रहे
कि हो गया गुनाह क्या के जब गुनाह कर चुके

ज़िन्दगी गुनाह थी जो, उम्र भर किये गये
कब्र ने सुला दिया , के जब गुनाह कर चुके

गुनाह रौशनी का था कि तीरगी तबाह थी
चराग था बुझा बुझा के जब गुनाह कर चुके

अंजुमन उज़ड़ गया चमन में आग लग गयी
हर तरफ धुंआ धुंआ के जब गुनाह कर चुके

इक गुनाह इश्क है तो ये गुनाह भी करें
लुत्फ़-ऐ-गम भी हो भला,के जब गुनाह कर चुके

शराफतों के दरम्यां कहाँ बसी है शेरियत
शेर हो गया मेरा के जब गुनाह कर चुके

रंजीत

Wednesday, April 14, 2010

दोस्तों एक ग़ज़ल आप सभी की ज़नातों को नज्र


या तो खुले दिल से अपना ले मुझे
या तहे दिल से आजमा ले मुझे

खुद में कब तक सिमटता रहूँगा भला
उससे कह दो कि दिलसे निकाले मुझे

इससे पहले कि, मैं लडखडा के गिरूँ
मैकदे से कहो ,कि सभाले मुझे

क्या कहा तुमने , गम चाहिए उसे
मैं समन्दर हूँ , आके खंगाले मुझे

मर रहा हूँ मैं ,हर एक लम्हा यहाँ
मार दे खुदा, और बचाले मुझे

रंजीत

















दोस्तों ये ग़ज़ल भी समात करें

हैरान हैं इस बात पे कि दीवाने ने ग़ज़ल कह दी
मैखाने देखते रहे और पैमाने ने ग़ज़ल कह दी

दिल भी मेरा बंज़र आँखें भी उनकी खुश्क थी
बस इतनी सी बात पे वीराने ने ग़ज़ल कह दी

वो भी ग़ज़ल कहती थी मैं भी ग़ज़ल कहता था
इसी ग़ज़ल ग़ज़ल में अफसाने ने ग़ज़ल कह दी

शमा जली दफ़तन, रुखसार घुमाया तुमने
हाय किस अंदाज़ से परवाने ने ग़ज़ल कह दी

छुप छुप के चाँद देखता था मैं चांदनी रात में
ज़माने को पता चला ज़माने ने ग़ज़ल कह दी

रंजीत

एक छोटे बहर की ग़ज़ल के शेर ...............

अगर मैं तनहा होता
आईने का क्या होता

गर तू मेरी दुनिया होती
फिर क्या दुनिया का होता

चाँद हारने वाला था बस
तुझपे एक धब्बा होता

जाम चढ़ाके बोले, काश
खुदा मेरे जैसा होता

रंजीत.......
आदाब दोस्तों ,

ये मंज़र कशी उन दीवाने सामयिन को नज्र जिन्होंने महब्बत और खुदा के फर्क को मिटा दिया .......

पागल उसने मुझको इस कदर बना दिया
गजलों को सिर्फ मेरा हमसफ़र बना दिया

दीवारों दर को देखता हूँ पागलों जैसा
कितना खुशगवार सा मंज़र बना दिया

सोता नहीं ख्याल में एक शब् को भी यहाँ
उसने मेरी हर शब् को यूँ सहर बना दिया

यूँ तो कभी खोले उसने दिल के दरीचे
बस अपना दिल दरीचों के बाहर बना दिया

जाता हूँ रोज़ ख्वाब में मिलने उसी से मैं
ख्वाबों को उसने मेरा मुकद्दर बना दिया

जीते जी हममे यूँ तो था मीलों का फासला
कब्रों को पर हमारी बराबर बना दिया

रंजीत

Tuesday, April 13, 2010

दोस्तों एक मतला और एक शेर ..... और दूसरी ग़ज़ल के दो शेर

खोके अपने वो होशो हवास बैठा है
मुद्दतों बाद आज खुद के पास बैठा है

ज़रूर कि है अंधेरों ने चरागों कि मदद
कहीं पे कोई तो जुगनू उदास बैठा है

रंजीत

है कोई चराग या, है कि मेरा दिल
कभी जला जला सा रहता है, कभी बुझा बुझा सा रहता है

है ये मेरा नाम, या है मेरी शोहरत
कभी धुंआ धुंआ सा रहता है , कभी गुँमा गुमाँ सा रहता है

रंजीत

पाकीज़ा होती हैं नज़रें देखकर उसको
ख्यालों में भी गर छूंलूं तो शर्मसार हो जाऊं

सुना है आज दोज़क से दावत आयी है
ज़रा ठहरो मियां मैं भी तैयार हो जाऊं
रंजीत


एक और शेर देखें
दोस्तों

तुम रात याद गये कुछ इस तरह मुझे
किताब तो पूरी पढ़ी पर वरक मुड गया

रंजीत
दोस्तों ये चंद मुतफ़र्रिक अशआर हैं जो ग़ज़ल के नहीं हैं। एक ही एक शेर कहा था लिहाज़ा वो ऐसे ही पेश कर देता हूँ

मैंने तुझे अपनाने में लम्हा भी गवाया नहीं
तुने मुझे गवाने में सदियाँ गुजारी कैसे

रंजीत

कनंखियों से देखूं उसको बातें करूं किसी और से
खुदा जाने उस घडी दिल गुज़रा किस किस दौर से

रंजीत
अब तुझ पर मेरा ऐतबार नहीं है
क्या ऐतबार है इस नऐतबार का

रंजीत

बातों बातों में दिल तोड़ देते हो
इतनी भी दिल्लगी अच्छी नहीं

रंजीत

ये बात है फ़क़त अपनी अपनी नज़र की
दुश्मनी भी इस क़दर, दुश्मन की क़दर की

रंजीत
जब गावं से निकलता हूँ परदेस जाने को
कब तलक आओगे लल्ला पूछता है घर

रंजीत
क्या कह रहा है नहीं जानता तुझे
यार कितना जानने लगा है मुझे
रंजीत

मेरे शेरों को जो इतना सम्भाल रखा है
ज़रूर दिल में किसी का ख्याल रखा है

रंजीत

मैं अपनी हद खुद बनके बैठा हूँ
नापना है तुझे, नाप ले मुझे
रंजीत

ये तन्हाई भी तनहा नहीं होने देती
यादों का ले के कारवां घूमता हूँ मैं

रंजीत
वक़्त अगर आया तो पढूंगा कब्र पर अपनी
जिंदगी बस मेरी इक ग़ज़ल मुकम्मल कर दे

रंजीत

दिया गरीब के घर जब कभी भी जलता है
जाने हवाओं को कैसे पता चलता है
रंजीत

जाने कितने दिलों पे राज करने लगे हो अब
ज़रा ये तो बताओ कि शेरीयत कहाँ से आयी

रंजीत

दीदार उसका क्या हुआ कि लब भी सिल गए
तस्सवुर में तो जाने कितने शेर कह गया

रंजीत

बात बात पे इलज़ाम रखते हो मुझ पर
क्या अदब कि सरपरस्ती इसको कहते हैं

रंजीत

जमीन और ज़बान दोनों ही मिल गयी
खुमार और फ़राज़ खुदा जाने कब मिले

रंजीत.......