आदाब दोस्तों
क्या मजबूरी है आपकी इस ग़ज़ल को पढने की ........
इतने गिले शिकवे रखते हो ऐसी क्या मजबूरी है
इतनी महब्बत क्यों करते हो ऐसी क्या मजबूरी है
रोज़ हवाएं बहकाकर इल्जाम हमी पर रखते हो
जुल्फें खोल के क्यों चलते हो ऐसी क्या मजबूरी है
चाँद तुम्हारे हुश्न के चलते खुद पर दाग लगा बैठा
रात में तारे क्यों गिनते हो ऐसी क्या मजबूरी है
रश्क तुम्हारी नज़र से करके मैखाने सब बंद हुए
तुम हो कि मस्जिद में मिलते हो ऐसी क्या मजबूरी है
दीदार तुम्हारा करके पैहम ग़ज़लें कहता रहता हूँ
इतनी ग़ज़लें क्यों सुनते हो ऐसी क्या मजबूरी है
( पैहम = लगातार ) ( रश्क =इर्ष्या )
रंजीत
कुछ शेर और हैं इस ग़ज़ल के जो बाद में आपके हवाले करूंगा
Thursday, April 29, 2010
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Kyaa baat hai!!
ReplyDeletesundar rachna...
ReplyDeleteये ग़ज़ल बहुत अच्छी है, तकरीबन मुकम्मल है। आख़री शे'र थोड़ा तवज्जो: चाहता है, बस। और आज यहाँ आने से वो रस्म-अदायगी वाली बात भी समझ में आ गयी। मैं याद नहीं रखता कि कहाँ-कहाँ गया… तो ये भी याद नहीं था।
ReplyDeleteजारी रहिए।
मोहतरम आपको मेरा कहा पसंद आया ...यही मेरे लिए सनद है .....
ReplyDeleteकभी रूबरू होंगे तो खूब चर्चे होंगे गजलों पर...........बहुत से अनछुए पहलू रह गये है.........
मेरा एक शेर है कि
मुझमे रहकर वो खुद से बैर करता है
इक यही काम वो मेरे बैगैर करता है ......
रंजीत........
तो मंजिल तो एक ही है ......किसी भी रस्ते से जाया जाये...........
मिलेंगे जल्द..........
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you will find my no. in my profile ...
will give you call some time for sure.....
waah dil choo liya...
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