Thursday, April 29, 2010

आदाब दोस्तों
क्या मजबूरी है आपकी इस ग़ज़ल को पढने की ........

इतने गिले शिकवे रखते हो ऐसी क्या मजबूरी है
इतनी महब्बत क्यों करते हो ऐसी क्या मजबूरी है

रोज़ हवाएं बहकाकर इल्जाम हमी पर रखते हो
जुल्फें खोल के क्यों चलते हो ऐसी क्या मजबूरी है

चाँद तुम्हारे हुश्न के चलते खुद पर दाग लगा बैठा
रात में तारे क्यों गिनते हो ऐसी क्या मजबूरी है

रश्क तुम्हारी नज़र से करके मैखाने सब बंद हुए
तुम हो कि मस्जिद में मिलते हो ऐसी क्या मजबूरी है

दीदार तुम्हारा करके पैहम ग़ज़लें कहता रहता हूँ
इतनी ग़ज़लें क्यों सुनते हो ऐसी क्या मजबूरी है

( पैहम = लगातार ) ( रश्क =इर्ष्या )
रंजीत
कुछ शेर और हैं इस ग़ज़ल के जो बाद में आपके हवाले करूंगा


5 comments:

  1. ये ग़ज़ल बहुत अच्छी है, तकरीबन मुकम्मल है। आख़री शे'र थोड़ा तवज्जो: चाहता है, बस। और आज यहाँ आने से वो रस्म-अदायगी वाली बात भी समझ में आ गयी। मैं याद नहीं रखता कि कहाँ-कहाँ गया… तो ये भी याद नहीं था।
    जारी रहिए।

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  2. मोहतरम आपको मेरा कहा पसंद आया ...यही मेरे लिए सनद है .....
    कभी रूबरू होंगे तो खूब चर्चे होंगे गजलों पर...........बहुत से अनछुए पहलू रह गये है.........
    मेरा एक शेर है कि

    मुझमे रहकर वो खुद से बैर करता है
    इक यही काम वो मेरे बैगैर करता है ......

    रंजीत........

    तो मंजिल तो एक ही है ......किसी भी रस्ते से जाया जाये...........

    मिलेंगे जल्द..........
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